नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

एच आर डायरीज़ - हरमिंदर सिंह

उपन्यास 22 दिसम्बर ,2016 से 26 दिसम्बर 2016 के बीच पढ़ा गया

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 181 | प्रकाशक : ओपन क्रेयोंस और ब्लॉगअड्डा

पुस्तक लिंक: एच आर डायरीज़ - पेपरबैक | एच आर डायरीज - किंडल




पहला वाक्य :
कुछ साल पहले!

पिछले एक दशक से एच हार  विभाग में काम करने के बाद लेखक उस नौकरी को छोड़ने का मन बना लेता है। लेकिन उससे पहले वो अपनी कहानी कहना चाहता है। और यह कहानी शुरू होती है नौकरी के पहले दिन से। वहाँ लेखक की मुलाकात विजय,संजीव, तारा और मधु से होती है। वे लोग सहकर्मी तो बनते ही हैं लेकिन वक्त गुजरने के साथ उनमें  मित्रता भी हो जाती है। ये सभी लोग नए नए नौकरी करने आये हैं। इनके कुछ सपने हैं, कुछ आकांक्षायें हैं जिन्हें वो नौकरी के द्वारा पूरा करना चाहते हैं। लेकिन नौकरी करना उतना आसान नहीं है जितना की उन्होंने सोचा था। लेखक की डायरी एंट्री के द्वारा पाठक इन जवान लोगों के जीवन में काम करते हुए जो घटनायें होती हैं उनसे रूबरू होता है। इन घटनाओं में मस्ती भी है, चिंता भी, दफ्तरी राजनीति भी तो दुःख भी। यही घटनायें इनका जीवन है। ये जीवन कैसा है ये तो आपको इस किताब को पढ़कर मालूम होगा।


मैंने सबसे पहले इस किताब के विषय में जानकिपुल ब्लॉग से जाना था। उस ब्लॉग में इस उपन्यास के कुछ अंश छपे थे। उन  हिस्सों  को पढ़कर मेरे मन में इस उपन्यास को पढने की ललक जागृत जरूर हुई थी लेकिन मेरे पास पढने वाली किताबों की सूची इतनी लम्बी हो चुकी है कि मुझे इस बात का यकीन था कि ये भी उस सूची में चली गयी तो शायद अगले साल ही इसको पढ़ पाऊंगा।

फिर जब मेरे पास ब्लॉगअड्डा से मेल आया और उस मेल में ये लिखा था क्योंकि मैं हिंदी में भी पढ़ी गयी किताबों के ऊपर अपने विचार लिखता हूँ तो वो चाहते हैं कि मैं इस किताब पर भी कुछ लिखूँ तो मैंने बिना वक्त गवाये इसके लिए हामी भर दी।

ऐसा  नहीं है कि ये पहली किताब है जो मुझे भेजी गयी है। इससे पहले भी दो किताबें मुझे भेजी गयी थी ( अलग अलग लोगों द्वारा )  जिनमें  से एक के विषय में मैं लिख पाया था लेकिन दूसरे के विषय में नहीं लिख पाया था। किताबें लेकर आपको एक निश्चित समय के अन्दर अपने विचार व्यक्त करने होते हैं और मैं अक्सर ऐसा करने में अपने आप को असमर्थ पाता हूँ। और अगर लिख नहीं पाता तो ग्लानि महसूस करता हूँ। इसलिए अब जब भी ऐसा कोई अवसर आता है तो मैं अक्सर मना ही कर देता हूँ। हाँ, किताब का विषय मुझे आकर्षित कर देता है तो मैं उसे उस सूची में डाल देता है जिसमे वो किताबें हैं जिन्हें मैं पढ़ना चाहता हूँ(इस सूची में तीन चार हज़ार से ऊपर किताबें हैं)।

लेकिन चूँकि इस किताब के अंश ने मेरे अन्दर इसको पढने की ललक जगाई और ब्लॉग अड्डा के माध्यम से ये मिल रही थी मैंने हाँ कर दी। अब चूँकि मुझे एक तय समय में इसे पढ़कर अपने विचार देने थे तो मेरे लिए ये एक अच्छी बात थी। जब ये किताब मेरे पास पहुँची तो मैं पाँच किताबों को एक साथ पढ़ रहा था लेकिन फिर मैंने उन्हें विराम देकर इसे ही पढने का फैसला किया।

ये तो बात हुई कि इस किताब से मेरा परिचय और फिर इसे पढने का मौका कैसा लगा। अकसर मैं किताब अमेज़न से मंगवाता हूँ तो उसको हासिल करके पढने के पीछे इतनी लम्बी कहानी नहीं होती है। इधर है तो सोचा कि लिख ही दूँ।

 खैर, किताब को पढने से पहले मेरे मन में कई अपेक्षायें थी। जिस कम्पनी में मैं काम करता हूँ उधर या जो भी मेरे मित्र है, उनसे मैंने ये ही सुना है कि एच आर डिपार्टमेंट में काम बिलकुल नही होता है। कई लतीफे एच आर डिपार्टमेंट के ऊपर बनाए जाते हैं। और जिन्हें हम बड़े चाव से पढ़ते भी हैं।  मेरे विचार इनसे जुदा नहीं थे। इसलिए जब इस किताब के विषय में मैंने सुना तो मुझे लगा इस किताब को पढने के बाद मैं एक एच आर डिपार्टमेंट की कार्यशैली से ज्यादा वाकिफ होऊँगा। लेकिन जब पढना शुरू किया तो थोड़ा सा निराश हुआ। इसमें वो सब इतने विस्तृत रूप से नहीं दिया गया था। ये बताया जाता है कि  वो दिन भर कंप्यूटर पर काम करते हैं लेकिन क्या ये नहीं बताया जाता।  लेकिन अब सोचता हूँ तो ये एक तरह से सही भी है। उन टेक्निकेलीटीस से किताब का आकार बढ़ता और कहानी के बोझिल होने का खतरा भी रहता। चुनाँचे अब मैं ये कह सकता हूँ कि यह किताब एक विभाग के लोगों के ऊपर जरूर है लेकिन ये कहानी हर विभाग में काम करने आये युवा की है।

'एच आर डायरीज' जैसा की नाम से पता चलता है एक व्यक्ति के डायरी के अंश हैं। पूरी किताब में हमे उस व्यक्ति का नाम नहीं पता चलता है। लेकिन वो कथावाचक है और इस कहानी को हम उसकी ही नज़र से देखते हैं। मैं उसे लेखक ही कहूँगा। लेखक अपनी नौकरी छोड़ चुका है और अब वो अपने शुरूआती  अनुभवों को बताना चाहता है। ये अनुभव डायरी एंट्री की शक्ल में हैं और हमे लेखक द्वारा बताये जाते हैं। इसलिए इसमें डायलॉग की मात्रा काफी कम हैं। हम लेखक के साथ उस सफ़र पर निकल पड़ते हैं। वो नौकरी ज्वाइन करता है। वहाँ जाकर उसे एहसास होता है कि नौकरी करना उतना आसान नहीं है जितना की बाहर से लगता है। उधर राजनीति है, प्रेशर है और फिर एक ऐसा सिस्टम है जहाँ इंसान, इंसान नहीं केवल एक संसाधन है- एक रिसोर्स है। इस संसाधन के ऊपर कंपनी जितना खर्च करती है उससे ज्यादा वो वसूल करना चाहती है। वो सोचता है कि ऐसा क्यों है? क्यों लोग  काम करने के बजाय चापलूसी करते हैं? क्यों काम को एक ही ढर्रे से किया जाता है? क्यों इसमें बदलाव नहीं किया जाता? और क्यों जब वो बदलाव करने की सोचता है तो ऊपर वाले नहीं  ऐसा नहीं चाहते हैं। जो जैसा चल रहा है उसे चलने दिया जाता है।

इन सबके बीच उसे कुछ दोस्त भी मिलते हैं। इन सभी लोगों का काम के प्रति अलग नजरिया है और लेखक के माध्यम से हम उन लोगों के नज़रिए को भी देखते हैं। किताब के हर एक चैप्टर को एक शीर्षक दिया गया है जिससे हम लेखक के दफतर में होने वाली चीजों से परिचित होते हैं। ये घटनायें काम के विभिन्न पहलूओं से हमारा परिचय कराती हैं। इन घटनाओं के बीच बीच में लेखक कुछ सवाल भी अपने से करता है और ये सवाल ऐसे थे जिन्हें आपने अपने आप से कभी न कभी जरूर किया होगा। फिर चाहे आप किसी भी विभाग या किसी भी पोस्ट में काम क्यों न करते हों। इस किताब से कई स्तर पर मुझे छुआ है और अगर आप इसे पढने का फैसला करते हैं तो उम्मीद है कि आपको भी छूएगी।

किताब में कुछ एक बातें हैं जो होती तो ज्यादा सही रहता। किताब नैरेटर सुना रहा है तो हमे उसके ही नजरिये से बाकी किरदारों को देखने का मौका मिलता है। इसमें हमे उन किरदारों के खाली उस जीवन का हिस्से के विषय में पता चलता है जिसमे वे लेखक के संपर्क में आते हैं। इसलिए मैं उनसे एक तरह का जुड़ाव महसूस नहीं कर पाया। तारा, मधु, विजय, संजीव अपनी नौकरी को लेखक से अलग नज़रिए से देखते थे। अगर उनके नज़रिए से कुछ चैप्टर किताब में होते तो मैं उनसे अपने आप को भावनात्मक रूप से ज्यादा जुड़ा हुआ पाता। कहानी में एक जगह ऐसा प्रसंग आता है जिसमे एक किरदार दूसरे से प्यार करता है और उस प्यार से लेखक और पाठक काफी देर में परिचित होते हैं। वो किरदार एक  बड़े दुःख से गुजर रहा होता है लेकिन मैं उस किरदार के दुःख को इतना महसूस नहीं कर सका। ये मेरे लिए ऐसा ही था जैसे मेरे दोस्त ने मुझे अपने ऑफिस के किसी व्यक्ति का किस्सा सुनाया हो कि कैसे उसे प्यार में चोट पहुँची। आप ये सुनने के बाद उससे व्यक्ति से सहानुभूति तो रख सकते हो लेकिन वो आपके ऊपर इतना असर नहीं डाल पाता है जितना कि तब होता जब उस व्यक्ति से हम इस बात को खुद सुनते या हम उस व्यक्ति से परिचित होते।

बाकी, किताब मुझे पसंद आई। हाँ, किताब ऐसी नहीं है कि आप इसे एक बार पढने बैठे तो पढ़ते ही चले जायें। ये उस तरह की किताब नहीं है। आप किताब के अध्याय पढ़ते हैं और फिर लेखक के उठाए प्रश्नों के विषय में सोचने लगते हैं। दूसरा ये किताब मुझे बाईस को मिली थी और इस दौरान मैं सफ़र में था। सफ़र में मुझे रोमांचक उपन्यास पढने का शौक है। इसलिए मेरे लिये इस उपन्यास को सफ़र में पढना भी अलग अनुभव था।

 मेरे हिसाब  ये किताब हर किसी को एक बार पढ़नी चाहिए। अगर आप अभी स्कूल या कॉलेज में पढ़ रहे हैं तो नौकरी करते हुए जो जीवन आप व्यतीत करेंगे उसकी कुछ झलक आपको इसमें देखने को मिलेगी।  अगर आपकी नयी नयी नौकरी लगी है तो आप इस किताब में अपना अक्स पायेंगे। आप इसके किरदारों से जुडाव महसूस कर पाएंगे।  अगर आपको नौकरी करते हुए काफी वक्त हो गया है तो भी आपको इस किताब को पढना चाहिए। किताब में कई सवाल है जो कभी न कभी आपने पूछे होंगे लेकिन फिर वक्त के चलते आपके जहन में जमे ये सवाल अपने आप धुंधले होते चले गये। इस किताब को पढ़ते हुए वो सवाल जरूर आपके मन में दोबारा उठ आयेंगे।

किताब के कुछ अंश :

मैंने महसूस किया कि ज़िन्दगी की दौड़ भाग मशीनों के आस पास और तीव्र हो जाती है। चंद लोग आपको भी मशीन की तरह रहने पर मजबूर कर देते हैं।  आपका जीवन किसी मशीन से कम  नहीं रह जाता। पैसे आप पाते हैं, लेकिन सुख शान्ति उस तरह की हासिल नहीं कर पाते हैं।

हर बार आप दूसरों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर सकते। हर बार आप दूसरों के लिये खुद को नहीं बदल सकते। लेकिन हर बार आप दूसरों को एक ऐसा व्यक्तित्व दे सकते हैं जो प्रभावी हो, मुस्कुराता हुआ हो और जिससे ये लगे कि थके हुए माहोल में भी आप उसी तरह सरलता से पटरी पर अपनी गाड़ी दौड़ा रहे हैं।

जब वह वहाँ से लाया हुआ प्रसाद वितरित करवाता तो उसे चखते हुए उसे जानने वाले कहते , 'स्वभाव और सोच यहीं छोड़कर जाता है।'
उसने अपनी कूटनीतिक सोच को धार्मिकता से समझौता न करने पर राजी किया हुआ था। वह बदल नहीं सकता था चाहें दुनिया बदल जाये। वह उसी रवैये के तहत कार्य करेगा जो वह पिछले एक दशक से करता आया था। सभी जानते थे कि वह धार्मिकता का ढोंग ज्यादातर दूसरे अधिकारियों की तरह करता है जो उसी की तरह हर साल धार्मिक पर्यटन पर जाते थे।
एक वाक्य में कहूँ तो मेरा मानना था कि 'उसने धर्म को अपने में प्रवेश करने से खुद के बनाये आवरण से रोक दिया था।'

मैं उस अदृश्य घेरे से स्वयं को अलग रखे हुए था क्योंकि मैं जानता था कि कार्यस्थल और वहाँ काम करने वाले लोगों के साथ क रिश्ता जरूर होता है और होना भी चाहिए। वास्तव में उस रिश्ते को भावनाओं से दूर रखना बहुत अहम है।

मैंने खुद से प्रश्न किया कि जब स्थिति हमारे हाथ से बाहर निकल जाये तो क्या उसे जाने देना चाहिए या उसकी वापसी के लिये जद्दोजहद करनी चाहिए। या फिर इंतजार करना बेहतर है। या फिर मायूसी में खुद को भिगोकर उसे भूल जाना चाहिए।

हम क्यों रोजी रोटी के लिये खुद को दाँव पर लगाते हैं? क्या हम कुछ ऐसा नहीं कर सकते जो हम ताला और चाबी के खेल से बरी हो जायें? क्यों बार बार चाबी घुमायी जाती है? कौन करता है ताले में चाबी को?

अगर आपने इस किताब को पढ़ा है तो जरूर बताइयेगा कि यह किताब आपको कैसी लगी। और अगर आपने इस किताब को नहीं पढ़ा है तो आप इस किताब को इस लिंक के माध्यम से मंगवा कर पढ़ सकते हैं:


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2 Comments
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  1. आपका रिव्यु पढ़कर समझ आया किताब को टाइटल ही गलत दिया गया है एच आर डायरीज क्योंकि टाइटल से यही भान होता है पूरा नावेल ही इस विभाग की कार्यप्रणाली पर आधारित है (या फिर कोई घटना विशेष इस कार्यालय से सम्बंधित का)।

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    1. अमित जी अगर आप शुरू में पढ़ेंगे तो देखेंगे कि मुख्य किरदार एच आर में काम करता है।

      ‘पिछले एक दशक से एच हार विभाग में काम करने के बाद लेखक उस नौकरी को छोड़ने का मन बना लेता है। लेकिन उससे पहले वो अपनी कहानी कहना चाहता है। और यह कहानी शुरू होती है नौकरी के पहले दिन से।’

      कहानी यही है। चूँकि मुख्य किरदार एच आर है और यह उसकी कहानी है तो शीर्षक मेरे हिसाब से फिट है क्योंकि एच आर की डायरी है।

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