रेटिंग : 3.5/5
उपन्यास 20 जुलाई 2016 से 23 जुलाई 2016 के बीच पढ़ा गया
उपन्यास 20 जुलाई 2016 से 23 जुलाई 2016 के बीच पढ़ा गया
संस्करण विवरण:
फॉर्मेट : हार्डबैक
पृष्ठ संख्या : 176
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
फॉर्मेट : हार्डबैक
पृष्ठ संख्या : 176
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
पहला वाक्य :
मेरे हमसफर,
किसी ने पूछा था - यह सड़क कहाँ जाती है?
मेरे हमसफर,
किसी ने पूछा था - यह सड़क कहाँ जाती है?
रिचर्ड और मनु की मुलाकात एक नाटक के रिहर्सल के दौरान हुई। फिर दोनों में आकर्षण हुआ और फिर प्यार। रिचर्ड एक पादरी था जो अक्सर भारत आया करता था। वो दुनिया भर में घूमा करता था। हाँ, एक बात और थी। दोनों ही शादी शुदा थे।
उनकी ज़िन्दगी में आगे क्या हुआ यही उपन्यास का विषय है।
मृदुला जी उपन्यास चित्तकोबरा पहली बार 1979 में प्रकाशित हुआ था। यानी आज से सैंतीस साल पहले। इतने वर्षों में काफी कुछ बदला है लेकिन विवाह के बाहर के सम्बन्ध आज भी गलत नज़रिए से देखे जाते हैं। पूरा समाज जज बन जाता है और सम्बन्ध में जाने वाला इंसान मुजरिम। उस वक्त क्या स्थिति रही होगी ये सोचना ही मेरे लिए काफी मुश्किल है।
मैं अक्सर सोचता हूँ ऐसे संबंध क्यों बनते हैं। अगर लोग अपने पार्टनर से खुश नहीं है तो वो उन्हें छोड़ क्यों नहीं देते और अगर हैं तो फिर इन संबंधों का क्या कारण है।क्या ये है की शादी इंसान के लिए एक अप्राकृतिक चीज़ है?
खैर, सोचता तो काफी बातें हूँ। लिखने लगा तो रौशनाई खत्म हो जायेगी और कागज़ भी( हा हा!! कागज़ और रौशनाई का इस्तेमाल करे हुए ज़माने हो गए। लेकिन आप अर्थ समझ सकते हैं।)। मेरी इस उपन्यास को पढ़ने की तीव्र इच्छा थी। एक कारण ये भी था कि इसको लेकर लेखिका पे अश्लीलता का आरोप क्यों लगा। उपन्यास मैंने पढ़ा और मुझे बेहद पसंद आया। हाँ,सोचने वाली बात ये थी कि जिसने अश्लीलता का आरोप लगाया उसने कौन सा उपन्यास पढ़ा था? इसमें तो मुझे कुछ भी ऐसा नहीं लगा।
खैर, सोचता तो काफी बातें हूँ। लिखने लगा तो रौशनाई खत्म हो जायेगी और कागज़ भी( हा हा!! कागज़ और रौशनाई का इस्तेमाल करे हुए ज़माने हो गए। लेकिन आप अर्थ समझ सकते हैं।)। मेरी इस उपन्यास को पढ़ने की तीव्र इच्छा थी। एक कारण ये भी था कि इसको लेकर लेखिका पे अश्लीलता का आरोप क्यों लगा। उपन्यास मैंने पढ़ा और मुझे बेहद पसंद आया। हाँ,सोचने वाली बात ये थी कि जिसने अश्लीलता का आरोप लगाया उसने कौन सा उपन्यास पढ़ा था? इसमें तो मुझे कुछ भी ऐसा नहीं लगा।
उपन्यास को मनु के पॉइंट ऑफ़ व्यू से दिखलाया गया है। उपन्यास की शुरुआत में जब वो अपने और रिचर्ड का वर्णन कर रही होती है तो मेरा ध्यान इस बात पे ज्यादा था कि मनु के पति और रिचर्ड की पत्नी के ऊपर इसका क्या असर पड़ेगा। वो विक्टिम थे। फिर ऐसा नहीं होता की महेश एक खराब इंसान था। वो मनु का ख्याल रखता था। तो फिर क्या कारण था मनु रिचर्ड के प्रति आकर्षित हुई? इसी बात को मृदुला जी ने बढ़ी सुंदरता से दर्शाया है। मनु और रिचर्ड दोनों आम इंसान हैं। वो न समाज से लड़ना चाहते हैं और न ही अपने अपने स्पोउसेस से अलग होना चाहते हैं।
उनके उठाये गये कदम उनकी निगाह में सही है, भले ही मेरी निगाह में न हों। इस उपन्यास को पढकर एक नया दृष्टिकोण मिलता है।
हाँ, चूँकि हम कहानी मनु की ज़बानी सुनते हैं तो हमे उसके परिवार के विषय में ज्यादा पता चलता है। रिचर्ड के विषय में जो भी पता रहता है वो केवल मनु के द्वारा या फिर रिचर्ड ने जो मनु को बताया रहता है उससे ही पता लगता है। उसमें सच्चाई कितनी है ये कहना मुश्किल है। रिचर्ड ने अपनी पत्नी की जो तस्वीर मनु के सामने उकेरी है वो भी कितनी सही है इस बात का अंदाजा मुझे नहीं है। मैं एक आदमी हूँ और ये जानता हूँ की एक आदमी,फिर चाहे वो असल ज़िन्दगी में करे या न करे, लेकिन वो अनेक लड़कियों के साथ होना चाहता है। कई लोग इस भावना को काबू कर लेते हैं लेकिन कई लोग इस फंतासी को पूरा कर देते हैं। अगर मुझे रिचर्ड का दृष्टकोण पूरी तरह मिलता तो चीजें साफ होती। इसका एक कारण ये भी है की मनु के पति और रिचर्ड की पत्नी की प्रतिक्रियायें एक दूसरे से एक दम उलट होती हैं।
उपन्यास के विषय में आखिर में तो यही कहूँगा ये एक जटिल विषय को दर्शाता है। पात्र जीवंत हैं और यथार्थ के काफी नज़दीक हैं। और लेखिका ने पात्रों को छोड़ दिया है। ऐसा लगता नहीं है कि उन्होंने अपनी या समाज की सोच के हिसाब से कहानी को ढालने की कोशिश की है। जैसा की इस तरह की कहानियों में अक्सर देखने को मिलता है।
उपन्यास मुझे बहुत अच्छा लगा। अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो अपनी राय ज़रूर दीजियेगा। अगर आपने इस उपन्यास को नहीं पढ़ा है तो आप इसे निम्न लिंक से मँगवा सकते हैं:
उपन्यास के कुछ अंश :
मैंने अपने पर्स में से छोटा सा आईना निकाला और चाँद के अक्स को उसमें कैद कर लिया। अब नीला घेरा मेरे बहुत करीब था। इतने करीब की हाथ बढाकर मैं उसे छू सकती थी। मैंने हाथ नहीं बढ़ाया। आजकल मैं काफी होशियार हो गई हूँ, सच्चाई पर पड़ी ख्वाब की झीनी चादर खींचा नहीं करती। हाथ बढाऊँ और वह आईने से टकरा जाए.. ख्वाब टूट न जायेगा।
इतनी छातियाँ एक साथ धड़क रही हैं, पर अलग से दिल एक भी नहीं। मरीज की नब्ज-सी हल्की पीली रौशनी ही मौजूं है यहाँ।
आखिर दर्द की असंख्य लकीरों से खुदे, भीगे चेहरे को बिना संभाले, वह मुस्कुरा दिया। धीरे से।
"सबसे अच्छी बात यह है", मैंने कहा,"तुम्हें दुःख देकर भी अच्छा लगता है। "
"नहीं,"उसने कहा,"वह नहीं है। सबसे अच्छी बात यह है कि तुम दुःख दे सकती हो। पिछले बत्तीस बरस में कोई मुझे दुःख नहीं दे सका। तुम दे सकी हो। बखूबी। बेपनाह।"
बात मैंने मज़ाक में कही थी। वह हँसा था और मैं भी हँस दी थी। कई बार मज़ाक मज़ाक में हम अनजाने कितना बड़ा सच बोल जाते हैं! पर यह मैंने बहुत बाद में सोचा था। सोचते हम हमेशा बाद में हैं।सच के अनुभव के बाद....
बात मैंने मज़ाक में कही थी। वह हँसा था और मैं भी हँस दी थी। कई बार मज़ाक मज़ाक में हम अनजाने कितना बड़ा सच बोल जाते हैं! पर यह मैंने बहुत बाद में सोचा था। सोचते हम हमेशा बाद में हैं।सच के अनुभव के बाद....
"दुःख मत करना,"उसने कहा,"शायद कोई भी इन्सान एक ही समय में एक दूसरे को प्यार नहीं करते...जब एक करता है तो दूसरा नहीं और जब दूसरा करता है... देरी मुझसे हुई, मनु!"
© विकास नैनवाल 'अंजान'
FTC Disclosure: इस पोस्ट में एफिलिएट लिंक्स मौजूद हैं। अगर आप इन लिंक्स के माध्यम से खरीददारी करते हैं तो एक बुक जर्नल को उसके एवज में छोटा सा कमीशन मिलता है। आपको इसके लिए कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं देना पड़ेगा। ये पैसा साइट के रखरखाव में काम आता है। This post may contain affiliate links. If you buy from these links Ek Book Journal receives a small percentage of your purchase as a commission. You are not charged extra for your purchase. This money is used in maintainence of the website.
Sahmat
ReplyDeleteशुक्रिया।
Delete